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दुर्जनों से बचकर रहना

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!!!---: दुर्जन और सज्जन :---!!! ========================== "दुर्जनः प्रियवादी च नैतद् विश्वासकारणम् । मधु तिष्ठति जिह्वाग्रे हृदये तु हलाहलम् ।।" अर्थ :----दुर्जन (बदमाश) व्यक्ति बहुत चालु होते हैं । बोलते तो बहुत मीठा हैं, किन्तु इनके ऊपर विश्वास नहीं किया जा सकता है । इनके मुख पर तो शहद होता है, किन्तु दिल में विष (जहर) भरा होता है । इसलिए इनसे बचकर रहना । ============================= www.vaidiksanskrit.com =============================== हमारे सहयोगी पृष्ठः-- (१.) वैदिक साहित्य हिन्दी में www.facebook.com/vaidiksanskrit (२.) वैदिक साहित्य और छन्द www.facebook.com/vedisanskrit (३.) लौकिक साहित्य हिन्दी में www.facebook.com/laukiksanskrit (४.) संस्कृत निबन्ध www.facebook.com/girvanvani (५.) संस्कृत सीखिए-- www.facebook.com/shishusanskritam (६.) चाणक्य नीति www.facebook.com/chaanakyaneeti (७.) संस्कृत-हिन्दी में कथा www.facebook.com/kathamanzari (८.) संस्कृत-काव्य www.facebook.com/kavyanzali (९.) आयुर्वेद और उपचार www.facebook.com/gyankisima ...

कालः क्रीडति

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!!!---: कालः क्रीडति :---!!! ========================= दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायातः । कालः क्रीडति गच्छत्यायुः तदपि न मुञ्चत्याशावायुः ।।१।। अग्रेवह्निः पृष्ठे भानुः रात्रौ चिबुकसमर्पितजानुः । करतलभिक्षा तरुतलवासः, तदपि न मुञ्चत्याशावायुः ।।२।। यावद् वित्तोपार्जनशक्तः तावन्निजपरिवारो रक्तः । पश्चाद् धावति जर्जरदेहे वार्तां पृच्छति कोSपि न गेहे ।।३।। अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुण्डं । वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशावायुः ।।४।। गेयं गीता नामसहस्रं ध्येयं श्रीपतिरूपमजस्रम् । नेयं सज्जनसङ्गे चित्तं देयं दीनजनाय च वित्तम् ।।५।। ============================= www.vaidiksanskrit.com =============================== हमारे सहयोगी पृष्ठः-- (१.) वैदिक साहित्य हिन्दी में www.facebook.com/vaidiksanskrit (२.) वैदिक साहित्य और छन्द www.facebook.com/vedisanskrit (३.) लौकिक साहित्य हिन्दी में www.facebook.com/laukiksanskrit (४.) संस्कृत निबन्ध www.fac...

महतां जनानां महती प्रकृतिः

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!!!---: महतां जनानां महती प्रकृतिः :---!!! ================================ "महान्तः एव महताम् अर्थं साधयितुं क्षमाः । ऋते समुद्रादन्यः को बिभर्ति वडवानलम् ।।" (पञ्चतन्त्रम्) अर्थः---महान् लोगों की महान् प्रकृति होती है । वही व्यक्ति महान् कार्य कर सकता है । भला आप ये बतायें कि समुद्र के बिना कौन बडवानल को सहन कर सकता है या धारण कर सकता है । निस्सन्देह महान् व्यक्ति ही महान् और श्रेष्ठ कर्म कर सकता है । क्षुद्र लोग नीच कर्म ही करते हैं या साधारण कर्म करते हैं । सहनशीलता और धैर्य जिसके अन्दर कूट-कूटकर भरा हो और जिसका उद्देश्य ऊँचा हो, लोगों की भलाई करने का जज्बा हो, वही महान् होता है । वह समुद्र की शान्त, निश्छल होता है, किन्तु विपत्ति में वह दूसरों की सहायता करता है । ============================== www.vaidiksanskrit.com =============================== हमारे सहयोगी पृष्ठः-- (१.) वैदिक साहित्य हिन्दी में www.facebook.com/vaidiksanskrit (२.) वैदिक साहित्य और छन्द www.facebook.com/vedisanskrit (३.) लौकिक साहित्...