ईश्वर का कृपा-पात्र
!!!---: ईश्वर का कृपा-पात्र :---!!!
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"नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवेष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् ॥"
(मुण्डकोपनिषद्--३.३)
शब्दार्थः---(न अयम् आत्मा) नहीं यह आत्मा, (प्रवचनेन) शास्त्रोपदेश से, भाषणों से, (लभ्यः) पाया जा सकता है , (न मेधया) न अधिक बुद्धि-विकास से, (न बहुना श्रुतेन) न ही बहुत अधिक शास्त्राध्ययन से, (यम् एव एषः) जिसको ही यह (आत्मा), (वृणुते) वरण करता है, अधिकारी समझता है, (तेन लभ्यः) वही पा सकता है, (तस्य) उसके लिए, (एषः आत्मा) यह आत्मा, (विवृणुते) उद्घाटित कर देता है, प्रगट कर देता है, (तनुम्) स्वरूप को, (स्वाम्) अपने ।
अर्थः---आत्मा बडे-बडे भाषणों से नहीं मिलता , तर्क-वितर्क से नहीं मिलता, बहुत-कुछ पढने-सुनने से नहीं मिलता । जिसको यह वर लेता है, वही इसे प्राप्त कर सकता है, उसके सामने आत्मा अपने स्वरूप को खोलकर रख देता है ।
व्याख्या - उपनिषद् की शिक्षा यह है कि वह ईश्वर प्रवचन , बुद्धि अथवा बहुश्रुत होने से प्राप्त नहीं होता । उसे वह मनुष्य ही प्राप्त कर सकता है जिसे स्वयं वह ( ईश्वर ) छाँट लिया करता है और उसी पर वह अपने स्वरूप को प्रकाशित कर देता है । प्रश्न यह है कि वह अंधाधुंध किसी को छाँट लेता है या छाँट लेने की कोई मर्यादा है । इस प्रश्न का उत्तर ऋग्वेद की एक ऋचा से मिल जाता है ।
ऋग्वेद में एक जगह कहा गया है --
"न ऋते श्रान्तस्य सख्याय देवा ॥" (ऋग्वेदः---४.३३.११)
अर्थात् जब तक मनुष्य यत्न करके अपने को थका नहीं लेता तब तक ईश्वर की दया का पात्र नहीं बन सकता ।
अभिप्राय यह है कि जब तक मुमुक्षु (मोक्ष का जिज्ञासु) अपने को (अपने अन्तःकरण आदि को) वेद, उपनिषद् की शिक्षा के अनुकूल शुद्ध करके ईश्वर के दर्शन का अधिकारी नहीं बना लेता , तब तक परमात्मा उसे अपनी गोद में नहीं बैठाता ।
इसलिए जो लोग पूजा-पाठ करते हैं और उसके ऊपर कोई विपत्ति आती है, तब वही लोग परमात्मा को कोसने लगते हैं "उसी की उपासना करो और हमारे ऊपर ही संकट का पहाड ला खडा किया । अब आज से पूजा-पाठ बन्द ।"
ऐसे लोग कभी सफल नहीं हो सकते । एक तो इनकी पूजा-पद्धति भ्रष्ट है , ऊपर से धमकियाँ देते रहते हैं । ऐसे लोग स्वयं
को धोखा देते हैं ।
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