।। निस्पृह साहित्यकार ।।

करीब सात दशक पूर्व रामगढ के राजा स्वर्गीय चन्द्रधरसिंह के मन में यह उमंग उठी कि हिन्दी के श्रेष्ठ आलोचक, कवि, कहानीकार को मैं नियमित आर्थिक सहायता देकर साहित्य-सेवा में अपना योगदान दूँ ।

आलोचकों में श्री महावीर प्रसाद द्विवेदी, कहानीकारों में मुंशी प्रेमचन्द और कवियों में सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला का चयन किया गया ।

स्वीकृति के लिए पत्र गए ।

पत्र का उत्तर देते हुए प्रेमचन्द ने तो शिष्टतापूर्ण पत्र लिखा कि उन्हें इस प्रकार के बन्धन से मुक्त रखा जाए ।

निराला के पास राजा साहब के सुहृद् दो-तीन सज्जन वह पत्र लेकर गए । उस समय वे पत्र हाथ में लेकर उनसे इधर-उधर की बातें करने लगे । इस बीच में जो पत्र उनके हाथ में था, खेल-खेल में उसके टुकडे-टुकडे और तोड-मरोड करते रहे । जब वे सज्जन विदा होने लगे तो उक्त पत्र का जवाब माँगा । तब जैसे सोते से जागकर निराला जी ने कहा---"अरे, यह पत्र तो अब टुकडे-टुकडे हो गया । बस, यही जवाब आप मेरी ओर से राजा साहब को पहुँचा दीजियेगा ।"

महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने उसका कोई जवाब ही नहीं लिखा । जान-बुझकर वे देर करते रहे , जिससे राजा साहब के मन से सहायता का विचार समाप्त हो जाए ।

ऐसे निस्पृह होते थे उस समय के साहित्यकार ।

आज सम्मान और पुरस्कारों की प्रतिस्पर्द्धा के इस दौर में जो विकृतियाँ दीख रही हैं, उस सन्दर्भ में हम सोचें कि एक दौर में सम्मान और पुरस्कार पाने के काबिल लोग किस प्रकार उन्हें ठुकरा कर अपनी लेखनी को सशक्त रखते थे ।

आज कल तो पुरस्कारों के लिए लॉबिंग की जाती है, और पैसे भी खर्च किए जाते हैं ।

विदेशी पुरस्कार जैसे--मैगसेसे, बुकर आदि पुरस्कार पाने के लिए भारतीय सेक्युलर लेखक भारत और भारतीय संस्कृति को जमकर गालियाँ देते हैं, अपमानित करते हैं, गन्दी आलोचना करते हैं, जिससे उन्हें ये विदेशी पुरस्कार मिल जाए । वे विदेशी भी यही चाहते हैं कि ये काले अंग्रेज हिन्दुस्तान को गाली दे ।

ये मूर्ख लोग हैं, कौन कहता है कि ये मनीषी लेखक हैं, ये देशद्रोही है । कुछ लोग हिन्दी का खाते हैं और हिन्दुस्तान को गाली देते हैं और विदेश में बैठ जाते हैं, बस जाते हैं और वहाँ से कुत्ते की आवाज में भौंकते हैं । ये हमारे सबसे बडे दुश्मन हैं । इनको नकार देना चाहिए ।

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