सफेद अश्व

!!!---: सफेद अश्व :---!!!
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गाधि बडे प्रतापी और धर्मात्मा राजा थे । उनकी एक रूपवती और गुणवती कन्या थी---सत्यवती । जब वह विवाह योग्य हुई तो वनवासी वृद्ध ऋचीक मुनि राजा गाधि के पास गए । उन्होंने सत्यवती से विवाह की इच्छा व्यक्त की । गाधि सोचने लगे कि उनकी फूल सी कन्या वृद्ध ऋषि के साथ कैसे रहेगी । लेकिन वे यह भी जानते थे कि उन्हें मना नहीं किया जा सकता है ।

अतः वे कुछ बोले---"हे महर्षे , हमारे वंश की परम्परा है कि हम होने वाले दामाद से काले कानों वाले एक हजार सफेद अश्व लेते हैं । अगर आप यह शर्त पूरी कर दें तो सत्यवती का विवाह आपके साथ हो सकता है ।"

महर्षि ऋचीक ने तपोबल से उसी समय वरुणदेव से एक हजार काले कानों वाले सफेद अश्व लेकर राजा गाधि को दे दिए । अब गाधि बाध्य थे । अतः उन्होंने विधिपूर्वक विवाह कर दिया । ऋचीक मुनि पत्नी को लेकर अपने आश्रम में लौट आए ।

राजा गाधि का कोई पुत्र नहीं था । सत्यवती जानती थी कि उसके पति ऋषि ऋचीक के पास तपोबल है । अतः एक दिन मौका पाकर उसने अपने पति ऋचीक से स्वयं के लिए एक पुत्र की इच्छा प्रकट की । साथ में अपने लिए एक भाई की भी इच्छा प्रकट कर दी ।

ऋषि ऋचीक ने विशेष सामग्री व द्रव्य से विशेष प्रसाद बनाया, जो अपने पुत्र को ब्रह्मशक्तिवाला बना सकता था और साले को क्षत्रियधर्म वाला बना सकता था । वे उस प्रसाद को पत्नी को दे दिया और कहा कि तुम और तुम्हारी माँ इसे खा लें । सत्यवती ने उस प्रसाद को माँ को दे दिया ।

उसकी माँ लोभी प्रवृत्ति की थी । अतः उसने सोचा कि पत्नी के लिए ऋचीक ने विशेष और श्रेष्ठ प्रसाद बनाया होगा । अतः उसने प्रसाद को बदल दिया । बेटी का प्रसाद उसने खुद खा लिया और अपना प्रसाद बेटी को दे दिया ।

ऋचीक मुनि को जब यह सब ज्ञात हुआ तो वे बोले, "आर्ये, प्रसाद बदल जाने के कारण तुम्हें क्षत्रिय और तुम्हारी माता को ब्रह्मतेज युक्त पुत्र प्राप्त होगा ।"

कालान्तर में सत्यवती की माता का पुत्र विश्वामित्र के नाम से प्रसिद्ध हुआ । विश्वामित्र जन्म से क्षत्रिय थे, लेकिन उनके कर्म ब्राह्मणों के थे ।

दूसरी ओर सत्यवती ने जमदग्नि ऋषि को जन्म दिया । जमदग्नि के पुत्र परशुराम हुए । पत्नी की प्रार्थना पर महर्षि ऋचीक ने पुत्र जमदग्नि के स्थान पर अपने पौत्र परशुराम को क्षत्रिय-कर्मी होने का वर दे दिया , अतः परशुराम जन्म से ब्राह्मण होने पर भी कर्म से क्षत्रिय थे ।

एक दिन हैहयवंशी राजा सहस्रार्जुन शिकार पर निकला । एक शिकार का पीछा करते हुए वह बहुत दूर निकल आया । पास ही महर्षि जमदग्नि का आश्रम था । सहस्रार्जुन वहाँ पहुँचा तो महर्षि ने महर्षि ने उसका आदर-सत्कार किया । उसके साथ आई विशाल सेना भी वहीं विश्रमा करने लगी ।

महर्षि जमदग्नि के पास कामधेनु गौ थी । उसकी सहायता से उन्होंने सभी को तृप्त कर दिया । यह देख सहस्रार्जुन ने सोचा कि कामधेनु तो मेरे पास होनी चाहिए । उसने महर्षि से उसकी माँग की ।

महर्षि बोले, "राजन्, यज्ञकर्म और सभी आश्रमवासी कामधेनु पर ही निर्भर हैं । इसलिए मैं इसे आपको नहीं दे सकता ।"

इंकार सुनकर अहंकारी सहस्रार्जुन को क्रोध आ गया । वह बलपूर्वक कांमधेनु को साथ ले गया ।

जमदग्नि शान्त रहे, लेकिन जब परशुराम को सहस्रार्जुन की धृष्टता के विषय में ज्ञात हुआ तो वे क्रोध से भर गए । वे उसी समय सहस्रार्जुन की राजधानी पहुँचे और उसका मस्तक काटकर कामधेनु को वापस आश्रम ले आए ।

जमदग्नि दुःखी होकर बोले, "तुमने यह क्या कर दिया परशुराम । ब्राह्मणों का कार्य क्षमादान है, किसी की हत्या करना नहीं । तुम्हारे इस कृत्य से कामधेनु तो वापस मिल गई, लेकिन तुम पाप के भागी हो गए । उसके निवारण के लिए तुम्हें कठोर तप करने होंगे ।"

परशुराम तप हेतु वन चले गए ।



इधर बदले की भावना से सहस्रार्जुन के पुत्रों ने महर्षि जमदग्नि का वध कर दिया । परशुराम को जब इसका पता चला तो उनका क्रोध सातवें आसमान पर पहुँच गया । उन्होंने उसके पुत्रों को भी मार दिया । साथ ही उन्होंने इक्कीस बार पृथिवी से क्षत्रियों को नष्ट किया । अन्त वे हिमालय पर जाकर तप करने लगे ।
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