सुभाषित
!!!---: सुभाषित :---!!!
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अर्थः---"सुभाषित" (सु + भाषित = सुन्दर ढंग से कही गयी बात) ऐसे शब्द-समूह, वाक्य या अनुच्छेदों को कहते हैं जिसमें कोई बात सुन्दर ढंग से या बुद्धिमत्तापूर्ण तरीके से कही गयी हो। सुवचन, सुकथन, सदुक्ति, सूक्ति, अनमोल वचन, सुविचार आदि शब्द भी इसके लिये प्रयुक्त होते हैं।
सुभाषित संग्रह ग्रन्थों की सूची
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(1.) सुभाषितरत्नकोश :---
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इसके संग्रहकर्त्ता विद्याकर थे, जो १२वीं शताब्दी हुए थे ।ये बौद्ध विद्वान थे। इनकी कृति में १३०० ई के पहले के कवियों के पद्य समाहित हैं। इसमें अमरूक और भर्तृहरि से बहुत से श्लोक लिये गये हैं।
(2.) सुभाषितावली--
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इसके संग्रहकर्त्ता वल्लभदेव थे, जो कश्मीर के रहने वाले थे । ये प्रायः ५वीं शताब्दी हुए थे । इसमें ३६० कवियों के ३५२७ पद्यों का संग्रह है ।
(3.) सदुक्तिकामृत
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इसके संग्रहकर्त्ता श्रीधरदास थे , जो १२०५ में हुए थे । इसमें ४८५ कवियों (मुख्यतः बंगाल के) के २३८० पद्यों का संग्रह है ।
(4.) सूक्तिमुक्तावली
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इसके संग्रहकर्त्ता जल्हण थे, जो १३वीं शताब्दी में हुए थे । ये दक्षिण भारत के राजा कृष्ण के मंत्री थे ।
(5.) सार्ङ्गधर पद्धति
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इसके संग्रहकर्त्ता सार्ङ्गधर थे, जो १३६३ ई. में हुए थे । इसमें ४६८९ पद्य हैं।
(6.) पद्यावली
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इसके संग्रहकर्त्ता अज्ञात है, अर्थात् हमें इसके संग्रहकर्त्ता की जानकारी नहीं है, इतिहास में भी इसकी जानकारी नहीं मिलती है । इसमें १२५ कवियों के ३८६ पद्य है ।
(7.) सूक्तिरत्नहारः---
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इसके संग्रहकर्त्ता सूर्यकलिंगारय हैं ।ये १४वीं शताब्दी में हुए थे ।
(8.) पद्यवेणी---
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इसके संग्रहकर्त्ता वेणीदत्त नामक विद्वान् थे । इसमें १४४ कवियों के पद्य संग्रहीत हैं ।
(9.) सुभाषितानिविः--
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इसके संग्रहकर्त्ता वेदान्त देशिक हैं । ये १५वीं शताब्दी में हुए । ये दक्षिण भारतीय विद्वान् थे।
(10.) पद्यरचना--
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इसके संग्रहकर्त्ता लक्ष्मण भट्ट थे, जो १७वीं शताब्दी के आरम्भ में हुए । इसमें ७५६ पद्य हैं ।
(11.) पद्य अमृत तरंगिणी--
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इसके संग्रहकर्त्ता हरिभास्कर थे, जो १७वीं शताब्दी का उत्तरार्ध हुए ।
(12.) सूक्तिसौन्दर्यः--
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इसके संग्रहकर्त्ता सुन्दरदेव थे, जो १७वीं शताब्दी का उत्तरार्ध हुए ।
सूक्तियाँ---
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(1.)
"संसारकटुवृक्षस्य द्वे फले अमृतोपमे।
सुभाषितरसास्वादः सङ्गतिः सुजने जने।।"
भावार्थ : संसार रूपी कड़ुवे पेड़ से अमृत तुल्य दो ही फल उपलब्ध हो सकते हैं, एक है मीठे बोलों का रसास्वादन और दूसरा है सज्जनों की संगति। यह संसार कष्टों का भंडार है, पग-पग पर निराशाप्रद स्थितियों का सामना करना पड़ता है। ऐसे संसार में दूसरों से कुछ एक मधुर बोल सुनने को मिल जाएँ और सद्व्यवहार के धनी लोगों का सान्निध्य मिल जाए तो आदमी को तसल्ली हो जाती है। मीठे बोल और सद्व्यवहार की कोई कीमत नहीं होती है, परंतु ये अन्य लोगों को अपने कष्ट भूलने में मदद करती हैं। कष्टमय संसार में इतना ही बहुत है।
(2.)
"सुभाषितमयैर्द्रव्यैः सङ्ग्रहं न करोति यः।
सोऽपि प्रस्तावयज्ञेषु कां प्रदास्यति दक्षिणाम्।।"
भावार्थ : सुभाषित कथन रूपी संंपदा का जो संग्रह नहीं करता वह प्रसंगविशेष की चर्चा के यज्ञ में भला क्या दक्षिणा देगा ? समुचित वार्तालाप में भाग लेना एक यज्ञ है और उस यज्ञ में हम दूसरों के प्रति सुभाषित शब्दों की आहुति दे सकते हैं। ऐसे अवसर पर एक व्यक्ति से मीठे बोलों की अपेक्षा की जाती है, किंतु जिसने सुभाषण की संपदा न अर्जित की हो यानि अपना स्वभाव तदनुरूप न ढाला हो वह ऐसे अवसरों पर औरों को क्या दे सकता है ?
(3.)
"उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः ।
दैवेन देयमिति का पुरुषा वदन्ति ।
दैवं विहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या ।
यत्ने कृते यदि न सिढ्यति कोत्र दोषः ॥"
भावार्थः---उद्योगी सिंह रूपी पुरुष को ही लक्ष्मी (धन) प्राप्त होती हाै । यदि भाग्य में होगा तो मिल जाएगा, ऐसा केवल कायर पुरुष ही कहते हैं । इसलिए भाग्य को छोडकर परिश्रम करो । कोशिश करने पर भी यदि सफलता नहीं मिलती है तो इसमें क्या दोष और किसका दोष । इसलिए कोशिश सफल होनी चाहिए, परिश्रम पूर्वक होनी चाहिए ।
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