पण्डित के लक्षण
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जब धृतराष्ट्र ने राजकाज दुर्योधन को सौंप दिया , तब महात्मा विदुर ने इसका विरोध किया । इसी प्रसंग में उन्होंने दुष्ट और पण्डित के लक्षण बताएँ हैं । यहाँ पण्डित से अभिप्राय विद्वान् व सज्जन व्यक्ति है । जातिगत शब्द कतई नहीं । जिनके अन्दर ये लक्षण पाए जाते हैं, वही "पण्डित" है । पण्डित का व्याकरण में अर्थ है--"पण्डा अस्य अस्ति इति पण्डितः ।" "पण्डा" बुद्धि को कहा जाता है । यह प्रसंग महाभारत के "उद्योग पर्व" से उद्धृत है । इसे "विदुर प्रजागर" भी कहा जाता है । इसकी संख्या है---३३.१६
"निषेवते प्रशस्तानि निन्दितानि न सेवते ।
अनास्तिकः श्रद्दधानः एतत् पण्डित लक्षणम् ।।" १६ ।।
अर्थः---पण्डित या प्राज्ञ वह है जो जीवन में प्रशस्त लक्ष्य को चुनता है, निन्दा योग्य कर्मों में नहीं पडता है । उसके कर्मों में श्रद्धा होती है और वह ईश्वर की सत्ता में विश्वास करता है ।
"क्रोधो हरर्षश्च दर्पश्च ह्रीः स्तम्भो मान्यमानिता ।
यमर्थान्नापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते ।। १७ ।।
अर्थः----वह जो लक्ष्य सामने रखता है , उससे क्रोध, हर्ष, गर्व, लज्जा, उद्दण्डता या सम्मान की इच्छा उसे हटा नहीं पाती । ऐसा व्यक्ति पण्डित कहा जाता है ।
"यस्य कृत्यं न विघ्नन्ति शीतमुष्णं भयं रतिः ।
समृद्धिरसमृद्धिर्वा स वै पण्डित उच्यते ।। १८ ।।
अर्थः---गर्मी-सर्दी, भय-अनुराग, गरीबी-अमीरी आदि बातें उसके कार्य में बाधा नहीं डाल सकती । वही पण्डित कहलाता है ।
"यस्य संसारिणी प्रज्ञा धर्मार्थावनुवर्तते ।
कामादर्थं वृणीते यः स वै पण्डित उच्यते ।। १९ ।।
अर्थः--- पण्डित की बुद्धि संसारिणी होती है, अर्थात् वह प्रत्येक बात पर सामाजिक परिस्थिति और जीवन के दृष्टिकोण से विचार करती है । वह धर्म और अर्थ का अनुसरण करता है और भोग को छोडकर पुरुषार्थ करता है ।
"यथाशक्ति चिकीर्षन्ति यथाशक्ति च कुर्वते ।
न किञ्चिदवमन्यन्ते नराः पण्डित बुद्धयः ।। २० ।।
अर्थः---बुद्धिमान् व्यक्ति अपनी शक्ति के अनुसार इच्छा करते हैं और अपने सामर्थ्य के अनुसार ही कार्य करते हैं । वे किसी भी बात की अवहेलना नहीं करते ।
"क्षिप्रं विजानाति चिरं शृणोति विज्ञाय चार्थं भजते न कामात् ।
नासम्पृष्टो व्युपयुङ्क्ते परार्थे तत् प्रज्ञानं प्रथमं पण्डितस्य ।। २१ ।।
अर्थः----पण्डित की सबसे बडी पहचान यही है कि वह कोई बात देर तक सुनता है, किन्तु उसे जल्दी ही समझ लेता है । वह समझ-बुझकर अपने कार्यों का निश्चय करता है, कामना के वश में नहीं आता है । वह विना पूछे किसी के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करता है ।
"नाप्राप्यमभिवाञ्छन्ति नष्टं नेच्छन्ति शोचितुम् ।
आपत्सु न मुह्यन्ति नराः पण्डितपुद्धयः ।। २२ ।।
अर्थः---जो वस्तु मिल नहीं सकती, उसे वह नहीं चाहता । जो नष्ट हो गया है, उसके बारे में शोक नहीं करता । वह संकटों में घिरने पर घबराता नहीं है ।
"निश्चित्य यः प्रक्रमते नान्तर्वसति कर्मणः ।
अवन्ध्य कालो वश्यात्मा स वै पण्डित उच्यते ।। २३ ।।
अर्थः---वह कोई निश्चय करके उस पर चलता जाता है । वह कोई काम शुरु करके बीच में रुकता नहीं । वह समय नष्ट नहीं करता और मन को वश में रखता है ।
"आर्यकर्मणि रज्यन्ते भूतिकर्मणि कुर्वते ।
हितं नाभ्यसूयन्ति पण्डिता भरतर्षभ ।। २४ ।।
अर्थः---वह अच्छे कामों में रुचि लेता है, उन्नति के कार्य करता है और भलाई करने वालों के दोष नहीं निकालता ।
"न हृष्यत्यात्मसम्माने नावमानेन तप्यते ।
गाङ्गो हृद इवाक्षोभ्यो यः स पण्डित उच्यते ।। २५ ।।
अर्थः---उसे अपने सम्मान से न तो प्रसन्नता होती है और न ही अपमान से दुःख होता है । गंगा के गहरे गड्ढे की तरह उसका चित्त क्षुब्ध नहीं होता ।
"तत्त्वज्ञः सर्वभूतानां योगज्ञः सर्वकर्मणाम् ।
उपायज्ञो मनुष्याणां नरः पण्डित उच्यते ।। २६ ।।
अर्थः---उसे सभी भौतिक वस्तुओं की अच्छी जानकारी होती है । वह काम करने का ढंग और मनुष्यों से व्यवहार करना जानता है ।
"प्रवृत्तवाक् चित्रकथ ऊहवान् प्रतिभानवान् ।
आशु ग्रन्थस्य वक्ता च यः स पण्डित उच्यते ।। २७ ।।
अर्थः---वह धाराप्रवाह बोल सकता है, तरह तरह की बातें कर सकता है, तर्क में निपुण और प्रतिभाशाली होता है वह पुस्तक की बाते जल्दी बता सकता है ।
"श्रुतं प्रज्ञानुगं यस्य प्रज्ञा चैव श्रुतानुगा ।
असम्भिन्नार्यमर्यादः पण्डिताख्यां लभेत सः ।। २८ ।।
अर्थः---जिसकी विद्या बुद्धि का अनुसरण करती है और बुद्धि विद्या का अनुसरण करती है । जो आर्य जीवन की मर्यादाओं को नहीं तोडता, वही पण्डित होता है ।
"अर्थं महान्तमासाद्य विद्यामैश्वर्यमेव वा ।
विचरत्यसमुन्नद्धो यः स पण्डित उच्यते ।। २९ ।।
अर्थः----जो व्यक्ति अत्यधिक सम्पत्ति, विद्या और भोग-ऐश्वर्य को प्राप्त करके भी उद्दण्ड व्यवहार नहीं करता, वही पण्डित या प्राज्ञ कहलाता है ।
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