मानव निर्माण

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मनुष्य और पशु में यही अंतर है कि मनुष्य धर्म कर सकता है, मनुष्य के अंदर मानवता हो सकती है और दूसरों पर कृपा कर सकता है, दया कर सकता है, परोपकार कर सकता है । यह काम पशु नहीं कर सकता । इसलिए मनुष्य की मनुष्यता है ।

"आहार-निद्रा-भय-मैथुनं च सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम् । 
धर्मो हि तेषामधिको विशेषो 
धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥"

आहार, निद्रा, भय, मैथुन ये चार चीजें पशु और मनुष्य में सामान्य है, किंतु उनमें धर्म ही विशेष है । धर्म से हीन व्यक्ति पशु के समान होता है ।


मनुष्य अच्छे कर्म करके परमात्मा का आशीर्वाद प्राप्त कर सकता है ।

"पुरुषो वै प्रजापतेर्नेदिष्ठम्" (शतपथ)

प्राणियों में से मनुष्य परमेश्वर के सबसे अधिक निकट है अन्य कोई प्राणी परमेश्वर की इतनी निकटता को प्राप्त किए हुए नहीं है, जितनी कि मनुष्य । यदि मानव अपनी मानवता को पहचानता रहे थे तो वह मनुष्य है, अन्यथा उसमें पशुत्व भरकर उसे पशु बना देता है :---

"खादते मोदते नित्यं शुनकः शुकरः खरः ।
तेषामेषां को विशेषो वृत्तिर्येषां तु तादृशी ।।"

कुत्ते, सूअर और गधे खाते पीते और खेलते कूदते हैं । यदि मनुष्य भी केवल इन्हीं बातों से अपने जीवन की सार्थकता मानता है तो फिर उसमें और पशु में क्या अंतर है ?

ऋग्वेद (१०/५३/६) में कहा है , "मनुर्भव जनया दैव्यं जनम् ।"
तू मनुष्य बन । हे मनुष्य ! तु दिव्य सन्तानों को जन्म दे ।

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