परिश्रम के विना कुछ नहीं

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संकलनकर्ता :-- योगाचार्य डॉक्टर प्रवीण कुमार शास्त्री

उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः ।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ॥

सभी कार्य परिश्रम से सफल हो जाते हैं, केवल मन में इच्छा करने मात्र से नहीं । क्योंकि कहा गया है, सोए हुए सिंह के मुख में कोई पशु प्रवेश नहीं करता । संकलनकर्ता :-- योगाचार्य डॉक्टर प्रवीण कुमार शास्त्री

इस दुनिया में सब कुछ एकदम से नहीं मिल जाता । परिश्रम करना पड़ता है और वह भी लगन से! सूरज भी एकदम से नहीं उग जाता, वह भी धीरे धीरे उठकर संसार को प्रकाशित करता है। अगर आप में धैर्य है, साहस है तो आप जीवन में नयी ऊंचाइयों को छू सकते हैं। संकलनकर्ता :-- योगाचार्य डॉक्टर प्रवीण कुमार शास्त्री

श्रमेण लभ्यं सकलं न श्रमेण विना क्वचित् ।
सरलाङ्गुलिः संघर्षात् न निर्याति घनं घृतम् ॥

शरीर के द्वारा मनःपूर्वक किया गया कार्य परिश्रम कहलाता है । परिश्रम के बिना जीवन की सार्थकता नहीं है  परिश्रम के बिना न विद्या मिलती है और न धन। परिश्रम के बिना खाया गया भोजन भी स्वादहीन होता है। अतः हमें सदैव परिश्रम करना चाहिए। परिश्रम से ही कोई देश, समाज और परिवार उन्नति करता है। संकलनकर्ता :-- योगाचार्य डॉक्टर प्रवीण कुमार शास्त्री

यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् ।
एवं पुरुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति ।।

 जैसे एक पहिये से रथ नहीं चल सकता है । उसी प्रकार बिना पुरुषार्थ के भाग्य सिद्ध नहीं हो सकता है |


अलसस्य कुतो विद्या , अविद्यस्य कुतो धनम् ।
अधनस्य कुतो मित्रम् , अमित्रस्य कुतः सुखम् ||

आलसी को विद्या कहाँ, अनपढ़ (मूर्ख) को धन कहाँ, निर्धन को मित्र कहाँ और अमित्र को सुख कहाँ ?

आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः ।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ।।

 मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है | परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र नहीं होता, क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुःखी नहीं होता । संकलनकर्ता :-- योगाचार्य डॉक्टर प्रवीण कुमार शास्त्री

सुखार्थिनः कुतो विद्या विद्यार्थिनः कुतः सुखम् ।
सुखार्थी वा त्यजेत्विद्यां विद्यार्थी व त्यजेत् सुखम् ।।

सुख की इच्छा रखने वाले को विद्या प्राप्त नहीं हो सकती और विद्या की इच्छा रखने वाले को सुख नहीं मिल सकता । इसलिए सुखार्थी को विद्या का त्याग कर देना चाहिए और विद्यार्थी को सुख का त्याग कर देना चाहिए ।

परिश्रम ना करने वाले गरीब व्यक्ति के लिए महात्मा विदुर ने बहुत ही कठोर शब्दों का प्रयोग किया है :---

द्वौ अम्भसि निवेष्टव्यौ गले बद्ध्वा दृढां शिलाम् ।
धनवन्तम् अदातारम् दरिद्रं च अतपस्विनम् ।।

जो व्यक्ति धनी होकर भी दान नही करते और जो व्यक्ति निर्धन होने पर भी परिश्रम नही करते, इस प्रकार के लोगों के गले में पत्थर बांधकर समुद्र में फेंक देना चाहिये।

वाणी रसवती यस्य,यस्य श्रमवती क्रिया ।
लक्ष्मी : दानवती यस्य, सफलं तस्य जीवितम् ।।

जिस मनुष्य की बोली मिठास भरी है, जिसका प्रत्येक कार्य परिश्रम से भरा है और जिसका धन दान आदि परोपकारी कार्यों में प्रयुक्त होता है, उस व्यक्ति का जीवन सही अर्थों में सफल है।

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