!!!---: परगुण-परमाणु :---!!! ========================== मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णा: त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः । परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्त: ॥ नीतिशतकम् (५३/२२१) अन्वयः---मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णाः उपकार-श्रेणिभिः त्रिभुवनं प्रीणयन्तः परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य निजहृदि नित्यं विकसन्तः सन्तः कियन्तः सन्ति । पदार्थः---मनसि---मन में , वचसि---वाणी में, काये---शरीर में, पुण्यपीयूषपूर्णाः---पुण्यरूप अमृत से भरे हुए, त्रिभुवनम्---तीनों लोकों को, उपकारश्रेणिभिः--उपकारों की पंक्ति से, प्रीणयन्तः---प्रसन्न रखते हुए, नित्यम्---सदा, परगुणपरमाणून्---दूसरों के छोटे-से-छोटे गुणों को भी, पर्वतीकृत्य--पर्वत के समान बढा-चढाकर, (बडाकर), निजहृदि विकसन्तः--अपने हृदय में विकसित करते हुए , सन्तः, सज्जन व्यक्ति, (संसार में), कियन्तः सन्ति---कितने हैं । व्याख्या---मनसि---हृदये, वचसि--वाण्याम्, काये---देहे, पुण्यपीयूषपूर्णाः---(पुण्यमेव पीयूषः तेन पूर्णाः) सुकृतसुधाप्रपूरिताः, उपकारश्रेणिभिः...
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